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Friday, September 20, 2024
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अद्भुत रहस्यों,अपार महिमा वाला हैं भगवान जगन्नाथ का अद्वितीय मंदिर

@sanatanyatra: जगन्नाथ की पुरी भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया भर में प्रसिद्ध है। उड़िसा प्रांत के पुरी में स्थित श्री जगन्नाथ का मंदिर श्री कृष्ण भक्तों की आस्था का केंद्र ही नहीं बल्कि वास्तुकला का भी बेजोड़ नमुना है। इसकी बनावट के कुछ राज तो आज भी राज ही हैं जिनका भेद इंजिनयरिंग के क्षेत्र में बड़ी-बड़ी डिग्रियां लेने वाले भी नहीं कर पायें हैं। आज हम आपको बताने जा रहे हैअद्भुत रहस्यों,अपार महिमा वाले महाप्रभु भगवान जगन्नाथ के अद्वितीय मंदिर के बारे में —

भगवान जगन्नाथ की प्रतिमा के पीछे के छुपे रहस्य–असल में जब भगवान कृष्ण ने अपनी देह का त्याग किया और उनका अंतिम संस्कार किया गया तो शरीर के एक हिस्से को छोड़कर उनकी पूरी देह पंचतत्व में विलीन हो गई। माना जाता है कि भगवान कृष्ण का हृदय एक जीवित व्यक्ति की तरह ही धड़कता रहा, और वह हृदय आज भी भगवान जगन्नाथ की लकड़ी की मूर्ति में सुरक्षित रूप से विद्यमान है।

यह सब जानते हैं कि भगवान जगन्नाथ बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियां लकड़ी से बनायी जाती हैं। जगन्नाथ पुरी मंदिर के तीनों मूर्ति विग्रह 12 वर्ष में नयी मूर्ति से बदली जाती हैं। पुरानी मूर्तियों की जगह नई मूर्तियां स्थापित की जाती हैं। इसे नवकलेवर उत्सव के नाम से जाना जाता है। कलेवर का अर्थ “शरीर” होता है। अर्थात्‌ भगवान ने नया शरीर धारण किया।

भगवान जगन्नाथ के विग्रह को नये कलेवर में परिवर्तित करने की यह परंपरा सदियों से जस की तस निभाई जा रही है। सबसे पहले जंगल से लकड़ी लाई जाती है। इस काम के लिए प्रार्थना कर देवताओं से अनुमति प्राप्त की जाती है। मूर्तियां तो नई बन जाती हैं। लेकिन, जिस प्रकार जीव के दो भाग होते हैं-शरीर और आत्मा, उसी प्रकार इन मूर्तियों के भी दो भाग माने जाते हैं। एक लकड़ी का नश्वर आवरण और दूसरा अविनाशी ब्रह्म पदार्थ। कहा जाता है कि इस ब्रह्म पदार्थ पर समय का कोई प्रभाव नहीं पड़ता, अतः यह अविनाशी है। इसे आत्म पदार्थ के नाम से भी जाना जाता है। नवकलेवर विधान में इसी ब्रह्म पदार्थ को पुरानी से नई मूर्ति में स्थानांतरित किया जाता है।

इस उत्सव के पहले विधि-विधान से उन पेड़ों को ढूंढ कर निकाला जाता है जिनसे भगवान की प्रतिमाएं बनती हैं। जगन्नाथ मंदिर के लगभग 100 सेवक मंदिर के प्रधान सेवक मछराल गजपति से यात्रा की अनुमति प्राप्त करते है और फिर वे देवी मंगला के मंदिर में जाकर प्रार्थना करते है। चार वरिष्ठ सेवक मूर्ति के सानिध्य के सम्बन्ध में देवी प्रेरणा ग्रहण करते हैं। इसके बाद नीम के पेड़ों की खोज की जाती है। पूजा के बाद इन पेड़ों को सफेद कपड़ों से ढक कर गिराया जाता है। इसके बाद मंदिर लाकर इन लकड़ियो की देव स्नान पूर्णिमा तक पूजा की जाती है। बाद में कुछ विधि-विधानों के बाद चार दिनों में इन प्रतिमाओं का निर्माण होता है।

भगवान जगन्नाथ की अधूरी मूर्तियां के पीछे का रहस्य—

कहा जाता है कि भगवान जगत के स्वामी जगन्नाथ भगवान श्री विष्णु की इंद्रनील या कहें नीलमणि से बनी मूर्ति एक अगरु वृक्ष के नीचे मिली थी। मूर्ति की भव्यता को देखकर धर्म ने इसे पृथ्वी के नीचे छुपा दिया। मान्यता है कि मालवा नरेश इंद्रद्युम्न जो कि भगवान विष्णु के कड़े भक्त थे उन्हें स्वयं श्री हरि ने सपने में दर्शन दिये और कहा कि पुरी के समुद्रतट पर तुम्हें एक दारु (लकड़ी) का लठ्ठा मिलेगा उस से मूर्ति का निर्माण कराओ। राजा जब तट पर पंहुचे तो उन्हें लकड़ी का लट्ठा मिल गया। अब उनके सामने यह प्रश्न था कि मूर्ति किनसे बनवाये। कहा जाता है कि भगवान विष्णु स्वयं श्री विश्वकर्मा के साथ एक वृद्ध मूर्तिकार के रुप में प्रकट हुए।
उन्होंनें कहा कि वे एक महीने के अंदर मूर्तियों का निर्माण कर देंगें लेकिन उस कारीगर रूप में आये बूढे ब्राह्मण ने राजा के सामने एक शर्त रखी कि वह यह कार्य बंद कमरे में एक रात में ही करेगा और यदि कमरा खुला तो वह काम बीच में
ही छोड़कर चला जाएगा। राजा ने उस ब्राह्मण की शर्त मान ली और कमरा बाहर से बंद करवा दिया। लेकिन काम की समीक्षा करने के लिए राजा कमरे के आसपास घुमने जरुर आता था। महीने का आखिरी दिन था, कमरे से भी कई दिन से कोई आवाज़ नहीं आ रही थी, तो राजा को जिज्ञासा हुई और उनसे रहा न गया और अंदर झांककर देखने लगे और दरवाजा खुलते ही वह ब्राह्मण उस अधूरी मूर्तियों को छोड़ कर गायब हो गया।
वास्तव में वह बूढा ब्राह्मण विश्वकर्माजी थे, जोभगवान विष्णु के आग्रह पर यह जगन्नाथ मंदिर में कृष्णा, बलराम और सुभद्रा की मूर्तियाँ बनाने धरती पर आये थे। राजा को अपने कृत्य पर बहुत पश्चाताप हुआ और वृद्ध से माफी भी मांगी लेकिन उन्होंने कहा कि यही दैव की मर्जी है। तब उसी अवस्था में मूर्तियां स्थापित की गई। आज भी भगवान जगन्नाथ, बलभद्र एवं सुभद्रा
की मूर्तियां उसी अवस्था में हैं।

सबसे गुप्त परंपरा :मूर्ति परिवर्तन की प्रक्रिया—

इसके बाद शुरू होती है सबसे गुप्त परंपरा। नई और पुरानी प्रतिमाओं को आमने-सामने रखा जाता है। इसके बाद एक अनोखी प्रक्रिया होती है, जिसमें मंदिर सहित पूरे शहर की बिजली बंद कर दी जाती है। पूरी तरह से ब्लैक आउट के दौरान शहर में भारी संख्या में सुरक्षा बल भी नियुक्त होते हैं। यहां तक कि इस विधि को करने वाले पुजारियों की आंखों पर भी पट्टी बांध दी जाती है। हाथों में दस्ताने पहनाए जाते हैं। इसके बाद मूर्ति परिवर्तन की प्रक्रिया शुरू होती है। पुरानी मूर्तियों की जगह नई मूर्तियां लगा दी जाती हैं। किन्तु यह आत्म पदार्थ या ब्रह्म पदार्थ ही वह चीज है जो कभी नहीं बदली जाती। ब्रह्म पदार्थ को पुरानी मूर्ति से निकालकर नई मूर्ति में लगा दिया जाता है।

यह ब्रह्म पदार्थ क्या है, इसके बारे में आज तक कोई ठोस जानकारी किसी के पास नहीं है। मूर्ति बदलने वाले पुजारियों के अनुभव जरूर हैं। उनके अनुसार जब ब्रह्म पदार्थ पुरानी मूर्ति से निकालकर नई मूर्ति में डालते हैं तो हाथों से ही ऐसा किया जाता है, उस समय ऐसा लगता है कि हाथों में खरगोश की तरह जैसे कुछ उछल रहा है। कोई ऐसी चीज जिसमें प्राण है। क्योंकि हाथों में दस्ताने होते हैं इसलिए उस पदार्थ का बिल्कुल सटीक भान नहीं हो पाता है। लेकिन वे ब्रह्म पदार्थ के किसी जीवित पदार्थ होने का अनुभव कर पाते हैं।

जगन्नाथ रथ यात्रा —यही साक्षात भगवान जगन्नाथ प्रत्येक वर्ष आषाढ़ मास शुक्ल द्वितीया को रथ पर आरुढ़ होकर जनता की कुशल क्षेम जानने हेतु निकलते हैं। इस रथ यात्रा में भगवान जगन्नाथ के बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा भी उनके साथ होते हैं। जगन्नाथ रथ यात्रा के आरंभ का ऐतिहासिक वर्णन 12वीं सदी से प्राप्त होता है। इसका विस्तृत विवरण पद्म पुराण, ब्रह्म पुराण और स्कंद पुराण में उद्धृत है।

पौराणिक कथा के अनुसार, इस दिन, भगवान जगन्नाथ अपनी मौसी के घर से होते हुए गुंडिचा मंदिर गए थे। इसे अब मौसी माँ का मंदिर कहते हैं। जगन्नाथ पुरी रथ यात्रा 11 दिनों तक चलती है। यह विश्व की सबसे बड़ी धार्मिक सभा आयोजन में से एक है। इसमें भक्त चलकर भगवान का आशीर्वाद लेने नहीं आते हैं अपितु, भगवान स्वयं अपने भक्तों को आशीर्वाद देने के लिए अपने गर्भगृह से बाहर आते हैं।

अब उन तीन रथों की बात करें जिस पर भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा सवार होकर बाहर निकलते हैं। तो नीम की पवित्र काष्ठ से निर्मित इन रथों में किसी भी प्रकार के कील, कांटे या अन्य धातु का प्रयोग नहीं होता है। भगवान जगन्नाथ के रथ में 16 पहिये होते हैं, और इसके निर्माण में कुल 832 लकड़ी के टुकड़ों का प्रयोग होता है। इसका रंग लाल-पीला और ऊंचाई 13 मीटर तक होती है। गरुड़ध्वज, कपिध्वज, नंदीघोष ये भगवान जगन्नाथ के रथ के नाम हैं। रथ के ध्वज को त्रिलोक्यवाहिनी कहते हैं। रथ को जिस रस्सी से खींचा जाता है, उसका नाम शंखचूड़ है। भगवान विष्णु के वाहन पक्षीराज गरुड़ भगवान जगन्नाथ के रथ के रक्षक हैं।

देवी सुभद्रा के रथ पर देवी दुर्गा का प्रतीक होता है। इनके रथ का नाम देवदलन है। लाल और काले रंग का ये रथ 12.9 मीटर ऊंचा होता है। रथ के रक्षक जयदुर्गा व सारथी अर्जुन होते हैं। इसे खींचने वाली रस्सी को स्वर्णचूड़ा नाम से जाना जाता है। भगवान बलभद्र को महादेव का प्रतीक माना गया है। इनके रथ का नाम तालध्वज है। रथ के रक्षक वासुदेव और सारथी मताली होते हैं। लाल और हरे रंग के इस रथ में 14 पहिये होते हैं। और यह रथ 13.2 मीटर ऊंचा होता है। इसी रथ पर सवार होकर भगवान जगन्नाथ जनता का कुशलक्षेम जानने अपने भवन से बाहर निकलते हैं।

सिंहद्वार का रहस्य—भगवान जगन्नाथ मंदिर से जुड़ा एक अन्य रहस्य है सिंहद्वार का। जगन्नाथ पुरी मंदिर समुद्र किनारे पर है। मंदिर में एक सिंहद्वार है। जब तक सिंहद्वार में कदम अंदर नहीं जाता तब तक समुद्री लहरों की आवाज सुनाई देती है, लेकिन जैसे ही सिंहद्वार के अंदर कदम जाता है लहरों की आवाज खो जाती है। इसी तरह सिंहद्वार से निकलते हुए वापसी में जैसे ही पहला कदम बाहर निकलता है, समुद्री लहरों की आवाज पुनः आने लगती है। विभिन्न लोगों द्वारा यह भी अनुभूत है कि सिंहद्वार में कदम रखने से पहले आसपास जलाई जाने वाली चिताओं की गंध भी आती है, लेकिन जैसे ही कदम सिंहद्वार के अंदर जाता है ये गंध भी आनी बंद हो जाती है।

चुम्बकीय क्षेत्र एक बड़ा रहस्य —मन्दिर की सूक्ष्म ऊर्जा का अद्भुत चुम्बकीय क्षेत्र एक बड़ा रहस्य है। साधारणतया किसी मंदिर या किसी बड़े भवन पर पक्षियों को बैठे हुए देखा जा सकता है। लेकिन जगन्नाथ मंदिर पर कभी किसी पक्षी को उड़ते हुए नहीं देखा गया। कोई भी पक्षी मंदिर परिसर में बैठे हुए दिखाई नहीं देता है। यहाँ तक कि मंदिर के ऊपर से हवाई जहाज, हेलिकॉप्टर तक नहीं उड़ते हैं। अंग्रेज भी कभी पुरी तट को बन्दरगाह नहीं बना सके। शुरुआत में उन्होंने इसका प्रयास किया किन्तु उस चुंबकीय प्रभाव के कारण उधर जाने वाले जहाज रास्ता भटक कर खो जाते थे।

झंडे का रहस्य —-इसके बाद मंदिर के झंडे का रहस्य भी कम कौतूहल का विषय नहीं। जगन्नाथ मंदिर करीब चार लाख वर्गफुट परिक्षेत्र में है। इसकी ऊंचाई 214 फुट है। सामान्य रूप से दिन में किसी समय किसी भी भवन या वस्तु या व्यक्ति की परछाई जमीन दिखाई देती है। लेकिन जगन्नाथ मंदिर की परछाई कभी किसी ने नहीं देखी। मन्दिर ही नहीं बल्कि मंदिर के शिखर पर जो झंडा लगा है, उसे लेकर भी बड़ा रहस्य है। इस झंडे को हर रोज बदलने का नियम है। मान्यता है कि यदि किसी दिन झंडे को नहीं बदला गया तो मंदिर अगले 18 वर्षों के लिए बंद हो जाएगा।

इसीलिए भगवान जगन्नाथ मंदिर के 45 मंजिला शिखर पर स्थित झंडे को रोज बदला जाता है। झंडे की अनोखी बात यह है कि ये झंडा हमेशा पवन की विपरीत दिशा में उड़ता है। मंदिर के शिखर पर एक सुदर्शन चक्र भी है। कहा जाता है कि पुरी के किसी भी कोने से अगर इस सुदर्शन चक्र को देखा जाए तो उसका मुंह आपकी तरफ ही नजर आता है।

अद्वितीय मंदिर की रसोई का रहस्य—इस अद्वितीय मंदिर की रसोई का रहस्य भी रोचक है। कहा जाता है कि जगन्नाथ मंदिर में दुनिया की सबसे बड़ी रसोई है। इस रसोई में 500 रसोइये और 300 उनके सहयोगी काम करते हैं। इस रसोई से जुड़ा एक रहस्य ये है कि यहां चाहे लाखों भक्त आ जाएं कभी प्रसाद कम नहीं पड़ा। लेकिन जैसे ही मंदिर का गेट बंद होने का समय होता है प्रसाद अपने आप समाप्त हो जाता है। अर्थात्‌ यहां प्रसाद कभी व्यर्थ नहीं होता है…जय हो श्री जगन्नाथ प्रभु

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