
Holi2025: टेसू के रंग-मस्ती भी उपचार भी, पलाश से ऐसे बनाएं रंग
विशाल गुप्ता@SanatanYatra. वसंत ऋतु में उत्तर प्रदेश से झारखण्ड तक तमाम जंगलों में मानो आग लग जाती है। दरअसल, यह पलाश के पुष्पों के खिलने का समय है। वसंत “कामदेव का सहायक” है तो पलाश “वसंत का श्रृंगार”। फाल्गुन पूर्णिमा आते-आते टेसू के फूल दूर से ही अपने ओर आकर्षित करने लगते हैं। इन दिनों ये पूर्ण परिपक्व हो जाते हैं।

दीपक की लौ के जैसे आकार और रंग के कारण अंग्रेज साहित्यकारों ने इसे “फ्लेम ऑफ फॉरेस्ट” यानी “वन ज्योति” नाम भी दिया है। पुष्पों का आकार कुछ-कुछ तोते की चोंच के समान होने के कारण इसे “किंशुक” नाम भी दिया गया है। लाल केसरिया रंग के टेसू के फूल वसंत के उद्दीपनकारी रूप को परिलक्षित करते हैं। पलास को परसा, टेसू, ढाक, केसू, छूल आदि नामों से भी जाना जाता है।
पलाश का न केवल वसंत बल्कि होली से भी गहरा नाता है। इसके फूलों को उबालने से एक प्रकार का ललाई लिये हुए पीला रंग निकलता है जिसको खासकर होली खेलने में प्रयोग किया जाता है। फली की बुकनी कर लेने से वह भी अबीर का काम देती है। होली के आसपास राजस्थान और गुजरात में पलाश से तैयार किए गये किंशुक जल से नहाना आवश्यक माना जाता है।
पुराने समय में भारत में टेसू, मेंहदी, हल्दी आदि से बनाए गये प्राकृतिक रंगों से ही होली खेली जाती थी। हालांकि अब रासायनिक रंगों का इस्तेमाल होने लगा है पर उत्तर प्रदेश और झारखण्ड के कुछ क्षेत्रों में पलाश के फूलों से बनाए गये रंगों का इस्तेमाल अब भी किया जाता है। पलाश उत्तर प्रदेश और झारखण्ड का राज्य पुष्प भी है।
पलाश यानी टेसू का न केवल वसंत बल्कि होली से भी गहरा नाता है। इसके फूलों को उबालने से एक प्रकार का ललाई लिये हुए पीला रंग निकलता है जिसको खासकर होली खेलने में प्रयोग किया जाता है।
वसंत में इसका पत्रहीन पर लाल फूलों से लदा हुआ वृक्ष अत्यंत नेत्र-सुखदायी होता है। संस्कृत और हिंदी के कवियों ने इस समय के इसके सौन्दर्य पर कविता और गीत रचे हैं। हालांकि इसका फूल अत्यंत सुंदर होता है पर उसमें गंध नहीं होती। इस विशेषता पर भी बहुत-सी उक्तियां कही गयी हैं।
पलाश का धार्मिक महत्व
पलाश का अर्थ है “पवित्र पत्तियां”। हिंदू धर्म में इसका महत्वपूर्ण स्थान है। धार्मिक अनुष्ठानों में पलाश के पत्तों, लकड़ी और फूलों का उपयोग किया जाता है। सनातन हिंदू मान्यता के अनुसार पलाश पेड़ की उत्पत्ति सोमरस में डूबे एक बाज के पंख से हुई है। एक प्रचलित कथा के अनुसार, माता पार्वती ने ब्रह्म देव को पलाश वृक्ष बनने का श्राप दिया था। इस पेड़ का धार्मिक महत्व इसके पत्तों के त्रिकोणीय गठन से शुरू होता है। पत्ते का मध्य भाग भगवान विष्णु, बायां ब्रह्मा और दायां महेश का प्रतिनिधित्व करता है। शास्त्रों में पलाश के वृक्ष को देवताओं का कोषाध्यक्ष और चंद्रमा का प्रतीक माना गया है।
श्रौत्रसूत्रों में कई यज्ञपात्रों के इसी की लकड़ी से बनाने की विधि दी गयी है। गृह्वासूत्र के अनुसार, उपनयन के समय ब्राह्मण कुमार (बटुक) के इसी की लकड़ी का दण्ड ग्रहण करने का विधान है। यज्ञ में जलाने के लिए पलाश की सूखी टहनियों
का उपयोग भी किया जाता है। पलाश के पत्ते से बने दोनों का उपयोग श्राद्ध कार्य के लिए किया जाता है।
पलाश में हैं औषधीय गुण
वसंत के मौसम में पलाश के फूलों को परम औषधि माना गया है। इसकी जड़ से लेकर पत्ते तक सभी भाग औषधीय गुणों से भरपूर हैं। घाव, मूत्र रोग, नेत्र ज्योति में गिरावट सहित तमाम रोगों के उपचार में इसका उपयोग किया जाता है। शरीर में खुजली, त्वचा पर चकत्ते, सूजन, खसरा, चेचक जैसी बीमारियों से बचने के लिए पलाश के पुष्पों से तैयार जल (किंशुक जल) से नहाने की सलाह दी जाती है। इसमें डायरिया, मधुमेह और पेट के कीड़ों को खत्म करने के गुण होते हैं। इन फूलों को खाने से वजन भी कम होता है। यह काम शक्तिवर्धक है और शीघ्रपतन की समस्या को दूर करता है।
पलाश पुष्प के पानी से स्नान करने पर लू नहीं लगती और गर्मी का अहसास नहीं होता। यह तनाव को भी कम करता है। ये
फूल फाइबर से भरपूर होते हैं, इस कारण भूख महसूस नहीं होती है।
पलाश से ऐसे बनाएं रंग
पलाश के सूखे फूलों को पंसारी की दुकान से खरीद सकते हैं। वसंत के मौसम में इन्हें तोड़ कर सुखाने के बाद घर में ही संरक्षित भी कर सकते हैं। हालांकि ताजे फूलों का रंग ज्यादा चटख बनता है।
रंग बनाने के लिए पलाश के लगभग एक किलो ताजे या सूखे फूल लें। इनके डंठल के ओर की काली टोपी निकाल दें। इन्हें
लगभग चार लीटर पानी में डालकर आंच पर रखकर इतना उबालें कि पानी आधा बचे। थोडा ठंडा हो जाने पर तैयार रंग को
छान लें और फूलों की एक पोटली बनाकर उसे भी निचोड़ लें।