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Thursday, November 21, 2024
Complete Ramayana with Hindi meaning, Balakand ,#श्रीरामचरितमानस, #प्रथम_सोपान _बालकाण्ड ,
धर्मग्रंथ / July 26, 2024

सम्पूर्ण #रामायण हिंदी अर्थ सहित: प्रथम सोपान-बालकाण्ड पोस्ट 07

@sanatanyatra श्रीरामचरितमानस ॥ श्रीजानकीवल्लभो विजयते ॥प्रथम सोपान : बालकाण्ड-पोस्ट 07 –

प्रनवउँ प्रथम भरत के चरना।

जासु नेम ब्रत जाइ न बरना॥

राम चरन पंकज मन जासू।

लुबुध मधुप इव तजइ न पासू॥2॥

भावार्थ:-(भाइयों में) सबसे पहले मैं श्री भरतजी के चरणों को प्रणाम करता हूँ, जिनका नियम और व्रत वर्णन नहीं किया जा सकता तथा जिनका मन श्री रामजी के चरणकमलों में भौंरे की तरह लुभाया हुआ है, कभी उनका पास नहीं छोड़ता॥2॥

बंदउँ लछिमन पद जल जाता।

सीतल सुभग भगत सुख दाता॥

रघुपति कीरति बिमल पताका।

दंड समान भयउ जस जाका॥3॥

भावार्थ:-मैं श्री लक्ष्मणजी के चरण कमलों को प्रणाम करता हूँ, जो शीतल सुंदर और भक्तों को सुख देने वाले हैं। श्री रघुनाथजी की कीर्ति रूपी विमल पताका में जिनका (लक्ष्मणजी का) यश (पताका को ऊँचा करके फहराने वाले) दंड के समान हुआ॥3॥

सेष सहस्रसीस जग कारन।

जो अवतरेउ भूमि भय टारन॥

सदा सो सानुकूल रह मो पर।

कृपासिन्धु सौमित्रि गुनाकर॥4॥

भावार्थ:-जो हजार सिर वाले और जगत के कारण (हजार सिरों पर जगत को धारण कर रखने वाले) शेषजी हैं, जिन्होंने पृथ्वी का भय दूर करने के लिए अवतार लिया, वे गुणों की खान कृपासिन्धु सुमित्रानंदन श्री लक्ष्मणजी मुझ पर सदा प्रसन्न रहें॥4॥

रिपुसूदन पद कमल नमामी।

सूर सुसील भरत अनुगामी॥

महाबीर बिनवउँ हनुमाना।

राम जासु जस आप बखाना॥5॥

भावार्थ:-मैं श्री शत्रुघ्नजी के चरणकमलों को प्रणाम करता हूँ, जो बड़े वीर, सुशील और श्री भरतजी के पीछे चलने वाले हैं। मैं महावीर श्री हनुमानजी की विनती करता हूँ, जिनके यश का श्री रामचन्द्रजी ने स्वयं (अपने श्रीमुख से) वर्णन किया है॥5॥

प्रनवउँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यान घन।

जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर॥17॥

भावार्थ:-मैं पवनकुमार श्री हनुमान्‌जी को प्रणाम करता हूँ, जो दुष्ट रूपी वन को भस्म करने के लिए अग्निरूप हैं, जो ज्ञान की घनमूर्ति हैं और जिनके हृदय रूपी भवन में धनुष-बाण धारण किए श्री रामजी निवास करते हैं॥17॥

कपिपति रीछ निसाचर राजा।

अंगदादि जे कीस समाजा॥

बंदउँ सब के चरन सुहाए।

अधम सरीर राम जिन्ह पाए॥1॥

भावार्थ:-वानरों के राजा सुग्रीवजी, रीछों के राजा जाम्बवानजी, राक्षसों के राजा विभीषणजी और अंगदजी आदि जितना वानरों का समाज है, सबके सुंदर चरणों की मैं वदना करता हूँ, जिन्होंने अधम (पशु और राक्षस आदि) शरीर में भी श्री रामचन्द्रजी को प्राप्त कर लिया॥1॥

रघुपति चरन उपासक जेते।

खग मृग सुर नर असुर समेते॥

बंदउँ पद सरोज सब केरे।

जे बिनु काम राम के चेरे॥2॥

भावार्थ:-पशु, पक्षी, देवता, मनुष्य, असुर समेत जितने श्री रामजी के चरणों के उपासक हैं, मैं उन सबके चरणकमलों की वंदना करता हूँ, जो श्री रामजी के निष्काम सेवक हैं॥2॥

सुक सनकादि भगत मुनि नारद।

जे मुनिबर बिग्यान बिसारद॥

प्रनवउँ सबहि धरनि धरि सीसा।

करहु कृपा जन जानि मुनीसा॥3॥

भावार्थ:-शुकदेवजी, सनकादि, नारदमुनि आदि जितने भक्त और परम ज्ञानी श्रेष्ठ मुनि हैं, मैं धरती पर सिर टेककर उन सबको प्रणाम करता हूँ, हे मुनीश्वरों! आप सब मुझको अपना दास जानकर कृपा कीजिए॥3॥

जनकसुता जग जननि जानकी।

अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥

ताके जुग पद कमल मनावउँ।

जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥4॥

भावार्थ:-राजा जनक की पुत्री, जगत की माता और करुणा निधान श्री रामचन्द्रजी की प्रियतमा श्री जानकीजी के दोनों चरण कमलों को मैं मनाता हूँ, जिनकी कृपा से निर्मल बुद्धि पाऊँ॥4॥

पुनि मन बचन कर्म रघुनायक।

चरन कमल बंदउँ सब लायक॥

राजीवनयन धरें धनु सायक।

भगत बिपति भंजन सुखदायक॥5॥

भावार्थ:-फिर मैं मन, वचन और कर्म से कमलनयन, धनुष-बाणधारी, भक्तों की विपत्ति का नाश करने और उन्हें सुख देने वाले भगवान्‌ श्री रघुनाथजी के सर्व समर्थ चरण कमलों की वन्दना करता हूँ॥5॥

गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न।

बंदउँ सीता राम पद जिन्हहि परम प्रिय खिन्न॥18॥

भावार्थ:-जो वाणी और उसके अर्थ तथा जल और जल की लहर के समान कहने में अलग-अलग हैं, परन्तु वास्तव में अभिन्न (एक) हैं, उन श्री सीतारामजी के चरणों की मैं वंदना करता हूँ, जिन्हें दीन-दुःखी बहुत ही प्रिय हैं॥18॥

श्री नाम वंदना और नाम महिमा

चौपाई*

बंदउँ नाम राम रघुबर को।

हेतु कृसानु भानु हिमकर को॥

बिधि हरि हरमय बेद प्रान सो।

अगुन अनूपम गुन निधान सो॥1॥

मैं श्री रघुनाथजी के नाम ‘राम’ की वंदना करता हूँ, जो अग्नि, सूर्य और चन्द्रमा का हेतु अर्थात्‌ ‘र’ ‘आ’ और ‘म’ रूप से बीज है। वह ‘राम’ नाम ब्रह्मा, विष्णु और शिवरूप है। वह वेदों का प्राण है, निर्गुण, उपमारहित और गुणों का भंडार है॥

महामंत्र जोइ जपत महेसू।

कासीं मुकुति हेतु उपदेसू॥

महिमा जासु जान गनराऊ।

प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ॥2॥

जो महामंत्र है, जिसे महेश्वर श्री शिवजी जपते हैं और उनके द्वारा जिसका उपदेश काशी में मुक्ति का कारण है तथा जिसकी महिमा को गणेशजी जानते हैं, जो इस ‘राम’ नाम के प्रभाव से ही सबसे पहले पूजे जाते हैं॥

जान आदिकबि नाम प्रतापू।

भयउ सुद्ध करि उलटा जापू॥

सहस नाम सम सुनि सिव बानी।

जपि जेईं पिय संग भवानी॥3॥

आदिकवि श्री वाल्मीकिजी रामनाम के प्रताप को जानते हैं, जो उल्टा नाम (‘मरा’, ‘मरा’) जपकर पवित्र हो गए। श्री शिवजी के इस वचन को सुनकर कि एक राम-नाम सहस्र नाम के समान है, पार्वतीजी सदा अपने पति के साथ राम-नाम का जप करती रहती हैं॥

हरषे हेतु हेरि हर ही को।

किय भूषन तिय भूषन ती को॥

नाम प्रभाउ जान सिव नीको।

कालकूट फलु दीन्ह अमी को॥4॥

नाम के प्रति पार्वतीजी के हृदय की ऐसी प्रीति देखकर श्री शिवजी हर्षित हो गए और उन्होंने स्त्रियों में भूषण रूप (पतिव्रताओं में शिरोमणि) पार्वतीजी को अपना भूषण बना लिया। नाम के प्रभाव को श्री शिवजी भलीभाँति जानते हैं, जिस के कारण कालकूट जहर ने उनको अमृत का फल दिया॥

बरषा रितु रघुपति भगति तुलसी सालि सुदास।

राम नाम बर बरन जुग सावन भादव मास॥19॥

श्री रघुनाथजी की भक्ति वर्षा ऋतु है, तुलसीदासजी कहते हैं कि उत्तम सेवकगण धान हैं और ‘राम’ नाम के दो सुंदर अक्षर सावन-भादो के महीने हैं॥

आखर मधुर मनोहर दोऊ।

बरन बिलोचन जन जिय जोऊ॥

ससुमिरत सुलभ सुखद सब काहू।

लोक लाहु परलोक निबाहू॥1॥

दोनों अक्षर मधुर और मनोहर हैं, जो वर्णमाला रूपी शरीर के नेत्र हैं, भक्तों के जीवन हैं तथा स्मरण करने में सबके लिए सुलभ और सुख देने वाले हैं और जो इस लोक में लाभ और परलोक में निर्वाह करते हैं (अर्थात्‌ भगवान के दिव्य धाम में दिव्य देह से सदा भगवत्सेवा में नियुक्त रखते हैं।)॥

कहत सुनत सुमिरत सुठि नीके।

राम लखन सम प्रिय तुलसी के॥

बरनत बरन प्रीति बिलगाती।

ब्रह्म जीव सम सहज सँघाती॥2॥

ये कहने, सुनने और स्मरण करने में बहुत ही अच्छे (सुंदर और मधुर) हैं, तुलसीदास को तो श्री राम-लक्ष्मण के समान प्यारे हैं। इनका (‘र’ और ‘म’ का) अलग-अलग वर्णन करने में प्रीति बिलगाती है (अर्थात बीज मंत्र की दृष्टि से इनके उच्चारण, अर्थ और फल में भिन्नता दिख पड़ती है), परन्तु हैं ये जीव और ब्रह्म के समान स्वभाव से ही साथ रहने वाले (सदा एक रूप और एक रस),॥

नर नारायन सरिस सुभ्राता।

जग पालक बिसेषि जन त्राता॥

भगति सुतिय कल करन बिभूषन।

जग हित हेतु बिमल बिधु पूषन॥3॥

ये दोनों अक्षर नर-नारायण के समान सुंदर भाई हैं, ये जगत का पालन और विशेष रूप से भक्तों की रक्षा करने वाले हैं। ये भक्ति रूपिणी सुंदर स्त्री के कानों के सुंदर आभूषण हैं और जगत के हित के लिए निर्मल चन्द्रमा और सूर्य हैं॥

स्वाद तोष सम सुगति सुधा के।

कमठ सेष सम धर बसुधा के॥

जन मन मंजु कंज मधुकर से।

जीह जसोमति हरि हलधर से॥4॥

ये सुंदर गति (मोक्ष) रूपी अमृत के स्वाद और तृप्ति के समान हैं, कच्छप और शेषजी के समान पृथ्वी के धारण करने वाले हैं, भक्तों के मन रूपी सुंदर कमल में विहार करने वाले भौंरे के समान हैं और जीभ रूपी यशोदाजी के लिए श्री कृष्ण और बलरामजी के समान (आनंद देने वाले) हैं॥

एकु छत्रु एकु मुकुटमनि सब बरननि पर जोउ।

तुलसी रघुबर नाम के बरन बिराजत दोउ॥20॥

तुलसीदासजी कहते हैं- श्री रघुनाथजी के नाम के दोनों अक्षर बड़ी शोभा देते हैं, जिनमें से एक (रकार) छत्ररूप (रेफ र्) से और दूसरा (मकार) मुकुटमणि (अनुस्वार) रूप से सब अक्षरों के ऊपर है॥

समुझत सरिस नाम अरु नामी।

प्रीति परसपर प्रभु अनुगामी॥

नाम रूप दुइ ईस उपाधी।

अकथ अनादि सुसामुझि साधी॥1॥

समझने में नाम और नामी दोनों एक से हैं, किन्तु दोनों में परस्पर स्वामी और सेवक के समान प्रीति है (अर्थात्‌ नाम और नामी में पूर्ण एकता होने पर भी जैसे स्वामी के पीछे सेवक चलता है, उसी प्रकार नाम के पीछे नामी चलते हैं। प्रभु श्री रामजी अपने ‘राम’ नाम का ही अनुगमन करते हैं। नाम और रूप दोनों ईश्वर की उपाधि हैं, ये (भगवान केनाम और रूप) दोनों अनिर्वचनीय हैं, अनादि हैं और सुंदर (शुद्ध भक्तियुक्त) बुद्धि से ही इनका (दिव्य अविनाशी) स्वरूप जानने में आता है॥1॥

को बड़ छोट कहत अपराधू।

सुनि गुन भेदु समुझिहहिं साधू॥

देखिअहिं रूप नाम आधीना।

रूप ग्यान नहिं नाम बिहीना॥2

भावार्थ:-इन (नाम और रूप) में कौन बड़ा है, कौन छोटा, यह कहना तो अपराध है। इनके गुणों का तारतम्य (कमी-बेशी) सुनकर साधु पुरुष स्वयं ही समझ लेंगे। रूप नाम के अधीन देखे जाते हैं, नाम के बिना रूप का ज्ञान नहीं हो सकता॥2॥

रूप बिसेष नाम बिनु जानें।

करतल गत न परहिं पहिचानें॥

सुमिरिअ नाम रूप बिनु देखें।

आवत हृदयँ सनेह बिसेषें॥3॥

भावार्थ:-कोई सा विशेष रूप बिना उसका नाम जाने हथेली पर रखा हुआ भी पहचाना नहीं जा सकता और रूप के बिना देखे भी नाम का स्मरण किया जाए तो विशेष प्रेम के साथ वह रूप हृदय में आ जाता है॥3॥

नाम रूप गति अकथ कहानी।

समुझत सुखद न परति बखानी॥

अगुन सगुन बिच नाम सुसाखी।

उभय प्रबोधक चतुर दुभाषी॥4॥

भावार्थ:-नाम और रूप की गति की कहानी (विशेषता की कथा) अकथनीय है। वह समझने में सुखदायक है, परन्तु उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। निर्गुण और सगुण के बीच में नाम सुंदर साक्षी है और दोनों का यथार्थ ज्ञान कराने वाला चतुर दुभाषिया है॥4॥

राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार।

तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर॥21॥

भावार्थ:-तुलसीदासजी कहते हैं, यदि तू भीतर और बाहर दोनों ओर उजाला चाहता है, तो मुख रूपी द्वार की जीभ रूपी देहली पर रामनाम रूपी मणि-दीपक को रख॥21॥

नाम जीहँ जपि जागहिं जोगी।

बिरति बिरंचि प्रपंच बियोगी॥

ब्रह्मसुखहि अनुभवहिं अनूपा।

अकथ अनामय नाम न रूपा॥1॥

भावार्थ:-ब्रह्मा के बनाए हुए इस प्रपंच (दृश्य जगत) से भलीभाँति छूटे हुए वैराग्यवान्‌ मुक्त योगी पुरुष इस नाम को ही जीभ से जपते हुए (तत्व ज्ञान रूपी दिन में) जागते हैं और नाम तथा रूप से रहित अनुपम, अनिर्वचनीय, अनामय ब्रह्मसुख का अनुभव करते हैं॥1॥

जाना चहहिं गूढ़ गति जेऊ।

नाम जीहँ जपि जानहिं तेऊ॥

साधक नाम जपहिं लय लाएँ।

होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएँ॥2॥

भावार्थ:-जो परमात्मा के गूढ़ रहस्य को (यथार्थ महिमा को) जानना चाहते हैं, वे (जिज्ञासु) भी नाम को जीभ से जपकर उसे जान लेते हैं। (लौकिक सिद्धियों के चाहने वाले अर्थार्थी) साधक लौ लगाकर नाम का जप करते हैं और अणिमादि (आठों) सिद्धियों को पाकर सिद्ध हो जाते हैं॥2॥

जपहिं नामु जन आरत भारी।

मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी॥

राम भगत जग चारि प्रकारा।

सुकृती चारिउ अनघ उदारा॥3॥

भावार्थ:-(संकट से घबड़ाए हुए) आर्त भक्त नाम जप करते हैं, तो उनके बड़े भारी बुरे-बुरे संकट मिट जाते हैं और वे सुखी हो जाते हैं। जगत में चार प्रकार के (1- अर्थार्थी-धनादि की चाह से भजने वाले, 2-आर्त संकट की निवृत्ति के लिए भजने वाले, 3-जिज्ञासु-भगवान को जानने की इच्छा से भजने वाले, 4-ज्ञानी-भगवान को तत्व से जानकर स्वाभाविक ही प्रेम से भजने वाले) रामभक्त हैं और चारों ही पुण्यात्मा, पापरहित और उदार हैं॥3॥

चहू चतुर कहुँ नाम अधारा।

ग्यानी प्रभुहि बिसेषि पिआरा॥

चहुँ जुग चहुँ श्रुति नाम प्रभाऊ।

कलि बिसेषि नहिं आन उपाऊ॥4॥

भावार्थ:-चारों ही चतुर भक्तों को नाम का ही आधार है, इनमें ज्ञानी भक्त प्रभु को विशेष रूप से प्रिय हैं। यों तो चारों युगों में और चारों ही वेदों में नाम का प्रभाव है, परन्तु कलियुग में विशेष रूप से है। इसमें तो (नाम को छोड़कर) दूसरा कोई उपाय ही नहीं है॥4॥

सकल कामना हीन जे राम भगति रस लीन।

नाम सुप्रेम पियूष ह्रद तिन्हहुँ किए मन मीन॥22॥

भावार्थ:-जो सब प्रकार की (भोग और मोक्ष की भी) कामनाओं से रहित और श्री रामभक्ति के रस में लीन हैं, उन्होंने भी नाम के सुंदर प्रेम रूपी अमृत के सरोवर में अपने मन को मछली बना रखा है (अर्थात्‌ वे नाम रूपी सुधा का निरंतर आस्वादन करते रहते हैं, क्षणभर भी उससे अलग होना नहीं चाहते)॥22॥

अगुन सगुन दुइ ब्रह्म सरूपा।

अकथ अगाध अनादि अनूपा॥

मोरें मत बड़ नामु दुहू तें।

किए जेहिं जुग ‍िनज बस निज बूतें॥1॥

भावार्थ:-निर्गुण और सगुण ब्रह्म के दो स्वरूप हैं। ये दोनों ही अकथनीय, अथाह, अनादि और अनुपम हैं। मेरी सम्मति में नाम इन दोनों से बड़ा है, जिसने अपने बल से दोनों को अपने वश में कर रखा है॥1॥

प्रौढ़ि सुजन जनि जानहिं जन की।

कहउँ प्रतीति प्रीति रुचि मन की॥

एकु दारुगत देखिअ एकू।

पावक सम जुग ब्रह्म बिबेकू॥2॥

भावार्थ:-सज्जन व्यक्ति इस बात को मुझ दास की धृष्टता या कल्पना न समझें, मैं अपने मन के विश्वास, प्रेम और रुचि की बात कहता हूँ। निर्गुण ब्रह्म का ज्ञान उस अप्रकट अग्नि के समान है, जो लकड़ी के अंदर है परन्तु दिखती नहीं है और सगुण ब्रह्म उस प्रकट अग्नि के समान है, जो प्रत्यक्ष दिखलाई देती है।

उभय अगम जुग सुगम नाम तें।

कहेउँ नामु बड़ ब्रह्म राम तें॥

ब्यापकु एकु ब्रह्म अबिनासी।

सत चेतन घन आनँद रासी॥3॥

निर्गुण और सगुण ब्रह्म दोनों ही जानने में सुगम नहीं हैं, लेकिन नाम जप से दोनों को आसानी से जाना जा सकता हैं, इसी कारण मैंने, राम नाम को निर्गुण ब्रह्म और सगुण ब्रह्म राम से बड़ा कहा है, जबकि ब्रह्म एक ही है जो कि व्यापक, अविनाशी, सत्य, चेतन और आनंद की खान है।

अस प्रभु हृदयँ अछत अबिकारी।

सकल जीव जग दीन दुखारी॥

नाम निरूपन नाम जतन तें।

सोउ प्रगटत जिमि मोल रतन तें॥4॥

ऐसे विकाररहित प्रभु के हृदय में रहते भी जगत के सब जीव दीन और दुःखी हैं। नाम का निरूपण करके नाम का जतन करने से वही ब्रह्म ऐसे प्रकट हो जाता है, जैसे रत्न के जानने से उसका मूल्य॥

निरगुन तें एहि भाँति बड़ नाम प्रभाउ अपार।

कहउँ नामु बड़ राम तें निज बिचार अनुसार॥23॥

इस प्रकार निर्गुण से नाम का प्रभाव अत्यंत बड़ा है। अब अपने विचार के अनुसार कहता हूँ, कि नाम (सगुण) राम से भी बड़ा है॥

राम भगत हित नर तनु धारी।

सहि संकट किए साधु सुखारी॥

नामु सप्रेम जपत अनयासा।

भगत होहिं मुद मंगल बासा॥1॥

श्री रामचन्द्रजी ने भक्तों के हित के लिए मनुष्य शरीर धारण करके स्वयं कष्ट सहकर साधुओं को सुखी किया, परन्तु भक्तगण प्रेम के साथ नाम का जप करते हुए सहज ही में आनन्द और कल्याण के घर हो जाते हैं॥

राम एक तापस तिय तारी।

नाम कोटि खल कुमति सुधारी॥

रिषि हित राम सुकेतुसुता की।

सहित सेन सुत कीन्हि बिबाकी॥2॥

सहित दोष दुख दास दुरासा।

दलइ नामु जिमि रबि निसि नासा॥

भंजेउ राम आपु भव चापू।

भव भय भंजन नाम प्रतापू॥3॥

श्री रामजी ने एक तपस्वी की स्त्री अहिल्या को ही तारा, परन्तु नाम ने करोड़ों दुष्टों की बिगड़ी बुद्धि को सुधार दिया। श्री रामजी ने ऋषि विश्वामिश्र के हित के लिए एक सुकेतु यक्ष की कन्या ताड़का की सेना और पुत्र सुबाहु सहित समाप्ति की, परन्तु नाम अपने भक्तों के दोष, दुःख और दुराशाओं का इस तरह नाश कर देता है जैसे सूर्य रात्रि का। श्री रामजी ने तो स्वयं शिवजी के धनुष को तोड़ा, परन्तु नाम का प्रताप ही संसार के सब भयों का नाश करने वाला है॥

दंडक बन प्रभु कीन्ह सुहावन।

जन मन अमित नाम किए पावन॥

निसिचर निकर दले रघुनंदन।

नामु सकल कलि कलुष निकंदन॥4॥

प्रभु श्री रामजी ने दण्डक वन को सुहावना बनाया, परन्तु नाम ने असंख्य मनुष्यों के मनों को पवित्र कर दिया। श्री रघुनाथजी ने राक्षसों के समूह को मारा, परन्तु नाम तो कलियुग के सारे पापों की जड़ उखाड़ने वाला है॥

सबरी गीध सुसेवकनि सुगति दीन्हि रघुनाथ।

नाम उधारे अमित खल बेद बिदित गुन गाथ॥24॥

श्री रघुनाथजी ने तो शबरी, जटायु आदि उत्तम सेवकों को ही मुक्ति दी, परन्तु नाम ने अगनित दुष्टों का उद्धार किया। नाम के गुणों की कथा वेदों में प्रसिद्ध है॥

राम सुकंठ बिभीषन दोऊ।

राखे सरन जान सबु कोऊ ॥

नाम गरीब अनेक नेवाजे।

लोक बेद बर बिरिद बिराजे॥1॥

श्री रामजी ने सुग्रीव और विभीषण दोनों को ही अपनी शरण में रखा, यह सब कोई जानते हैं, परन्तु नाम ने अनेक गरीबों पर कृपा की है। नाम का यह सुंदर विरद लोक और वेद में विशेष रूप से प्रकाशित है॥

राम भालु कपि कटुक बटोरा।

सेतु हेतु श्रमु कीन्ह न थोरा॥

नामु लेत भवसिन्धु सुखाहीं।

करहु बिचारु सुजन मन माहीं॥2॥

श्री रामजी ने तो भालू और बंदरों की सेना बटोरी और समुद्र पर पुल बाँधने के लिए थोड़ा परिश्रम नहीं किया, परन्तु नाम लेते ही संसार समुद्र सूख जाता है। सज्जनगण! मन में विचार कीजिए (कि दोनों में कौन बड़ा है)॥

राम सकुल रन रावनु मारा।

सीय सहित निज पुर पगु धारा॥

राजा रामु अवध रजधानी।

गावत गुन सुर मुनि बर बानी॥3॥

सेवक सुमिरत नामु सप्रीती।

बिनु श्रम प्रबल मोह दलु जीती॥

फिरत सनेहँ मगन सुख अपनें।

नाम प्रसाद सोच नहिं सपनें॥4

श्री रामचन्द्रजी ने कुटुम्ब सहित रावण को युद्ध में मारा, तब सीता सहित उन्होंने अपने नगर (अयोध्या) में प्रवेश किया। राम राजा हुए, अवध उनकी राजधानी हुई, देवता और मुनि सुंदर वाणी से जिनके गुण गाते हैं, परन्तु सेवक (भक्त) प्रेमपूर्वक नाम के स्मरण मात्र से बिना परिश्रम मोह की प्रबल सेना को जीतकर प्रेम में मग्न हुए अपने ही सुख में विचरते हैं, नाम के प्रसाद से उन्हें सपने में भी कोई चिन्ता नहीं सताती॥

ब्रह्म राम तें नामु बड़ बर दायक बर दानि।

रामचरित सत कोटि महँ लिय महेस जियँ जानि॥25॥

इस प्रकार नाम (निर्गुण) ब्रह्म और (सगुण) राम दोनों से बड़ा है। यह वरदान देने वालों को भी वर देने वाला है। श्री शिवजी ने अपने हृदय में यह जानकर ही सौ करोड़ राम चरित्र में से इस ‘राम’ नाम को (साररूप से चुनकर) ग्रहण किया है॥

मासपारायण, पहला विश्राम

क्रमश:–

सीताराम सीताराम 🙏

नमः पार्वतीपतये हर हर महादेव

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