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Thursday, November 21, 2024
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सम्पूर्ण #रामायण हिंदी अर्थ सहित: प्रथम सोपान-बालकाण्ड पोस्ट 06

श्रीरामचरितमानस ॥ श्रीजानकीवल्लभो विजयते ॥प्रथम सोपान : बालकाण्ड-पोस्ट 06 –

ग्रह भेजष जल पवन पट पाइ कुजोग सुजोग।

होहिं कुबस्तु सुबस्तु जग लखहिं सुलच्छन लोग॥7 (क)॥

ग्रह, औषधि, जल, वायु और वस्त्र- ये सब भी कुसंग और सुसंग पाकर संसार में बुरे और भले पदार्थ हो जाते हैं। चतुर एवं विचारशील पुरुष ही इस बात को जान पाते हैं॥

सम प्रकास तम पाख दुहुँ नाम भेद बिधि कीन्ह।

ससि सोषक पोषक समुझि जग जस अपजस दीन्ह॥7 (ख)॥

महीने के दोनों पखवाड़ों में उजियाला और अँधेरा समान ही रहता है, परन्तु विधाता ने इनके नाम में भेद कर दिया है (एक का नाम शुक्ल और दूसरे का नाम कृष्ण रख दिया)। एक को चन्द्रमा का बढ़ाने वाला और दूसरे को उसका घटाने वाला समझकर जगत ने एक को सुयश और दूसरे को अपयश दे दिया॥

*रामरूप से जीवमात्र की वंदना*

जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि।

बंदउँ सब के पद कमल सदा जोरि जुग पानि॥7(ग)॥

जगत में जितने जड़ और चेतन जीव हैं, सबको राममय जानकर मैं उन सबके चरणकमलों की सदा दोनों हाथ जोड़कर वन्दना करता हूँ॥

देव दनुज नर नाग खग प्रेत पितर गंधर्ब।

बंदउँ किंनर रजनिचर कृपा करहु अब सर्ब॥7 (घ)

देवता, दैत्य, मनुष्य, नाग, पक्षी, प्रेत, पितर, गंधर्व, किन्नर और निशाचर सबको मैं प्रणाम करता हूँ। अब सब मुझ पर कृपा कीजिए॥7

आकर चारि लाख चौरासी।

जाति जीव जल थल नभ बासी॥

सीय राममय सब जग जानी।

करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी॥1॥

चौरासी लाख योनियों में चार प्रकार के (स्वेदज, अण्डज, उद्भिज्ज, जरायुज) जीव जल, पृथ्वी और आकाश में रहते हैं, उन सबसे भरे हुए इस सारे जगत को श्री सीताराममय जानकर मैं दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ॥

*तुलसीदासजी की दीनता और राम भक्तिमयी कविता की महिमा*

जानि कृपाकर किंकर मोहू।

सब मिलि करहु छाड़ि छल छोहू॥

निज बुधि बल भरोस मोहि नाहीं।

तातें बिनय करउँ सब पाहीं॥2॥

मुझको अपना दास जानकर कृपा की खान आप सब लोग मिलकर छल छोड़कर कृपा कीजिए। मुझे अपने बुद्धि-बल का भरोसा नहीं है, इसीलिए मैं सबसे विनती करता हूँ॥

करन चहउँ रघुपति गुन गाहा।

लघु मति मोरि चरित अवगाहा॥

सूझ न एकउ अंग उपाऊ।

मन मति रंक मनोरथ राउ॥3॥

मैं श्री रघुनाथजी के गुणों का वर्णन करना चाहता हूँ, परन्तु मेरी बुद्धि छोटी है और श्री रामजी का चरित्र अथाह है। इसके लिए मुझे उपाय का एक भी अंग अर्थात्‌ कुछ (लेशमात्र) भी उपाय नहीं सूझता। मेरे मन और बुद्धि कंगाल हैं, किन्तु मनोरथ राजा है॥

मति अति नीच ऊँचि रुचि आछी।

चहिअ अमिअ जग जुरइ न छाछी॥

छमिहहिं सज्जन मोरि ढिठाई।

सुनिहहिं बालबचन मन लाई॥4॥

मेरी बुद्धि तो अत्यन्त नीची है और चाह बड़ी ऊँची है, चाह तो अमृत पाने की है, पर जगत में जुड़ती छाछ भी नहीं। सज्जन मेरी ढिठाई को क्षमा करेंगे और मेरे बाल वचनों को मन लगाकर (प्रेमपूर्वक) सुनेंगे॥

जौं बालक कह तोतरि बाता।

सुनहिं मुदित मन पितु अरु माता॥

हँसिहहिं कूर कुटिल कुबिचारी।

जे पर दूषन भूषनधारी॥5॥

जैसे बालक जब तोतले वचन बोलता है, तो उसके माता-पिता उन्हें प्रसन्न मन से सुनते हैं, किन्तु क्रूर, कुटिल और बुरे विचार वाले लोग जो दूसरों के दोषों को ही भूषण रूप से धारण किए रहते हैं (अर्थात्‌ जिन्हें पराए दोष ही प्यारे लगते हैं), हँसेंगे॥

निज कबित्त केहि लाग न नीका।

सरस होउ अथवा अति फीका॥

जे पर भनिति सुनत हरषाहीं।

ते बर पुरुष बहुत जग नाहीं॥6॥

रसीली हो या अत्यन्त फीकी, अपनी कविता किसे अच्छी नहीं लगती? किन्तु जो दूसरे की रचना को सुनकर हर्षित होते हैं, ऐसे उत्तम पुरुष जगत में बहुत नहीं हैं॥

जग बहु नर सर सरि सम भाई।

जे निज बाढ़ि बढ़हि जल पाई॥

सज्जन सकृत सिंधु सम कोई।

देखि पूर बिधु बाढ़इ जोई॥7॥

हे भाई! जगत में तालाबों और नदियों के समान मनुष्य ही अधिक हैं, जो जल पाकर अपनी ही बाढ़ से बढ़ते हैं (अर्थात्‌ अपनी ही उन्नति से प्रसन्न होते हैं)। समुद्र सा तो कोई एक बिरला ही सज्जन होता है, जो चन्द्रमा को पूर्ण देखकर (दूसरों का उत्कर्ष देखकर) उमड़ पड़ता है॥

भाग छोट अभिलाषु बड़ करउँ एक बिस्वास।

पैहहिं सुख सुनि सुजन सब खल करिहहिं उपहास॥8॥

मेरा भाग्य छोटा है और इच्छा बहुत बड़ी है, परन्तु मुझे एक विश्वास है कि इसे सुनकर सज्जन सभी सुख पावेंगे और दुष्ट हँसी उड़ावेंगे॥

खल परिहास होइ हित मोरा।

काक कहहिं कलकंठ कठोरा॥

हंसहि बक दादुर चातकही।

हँसहिं मलिन खल बिमल बतकही॥1॥

किन्तु दुष्टों के हँसने से मेरा हित ही होगा। मधुर कण्ठ वाली कोयल को कौए तो कठोर ही कहा करते हैं। जैसे बगुले हंस को और मेंढक पपीहे को हँसते हैं, वैसे ही मलिन मन वाले दुष्ट निर्मल वाणी को हँसते हैं॥

कबित रसिक न राम पद नेहू।

तिन्ह कहँ सुखद हास रस एहू॥

भाषा भनिति भोरि मति मोरी।

हँसिबे जो हँसें नहिं खोरी॥2॥

जो न तो कविता के रसिक हैं और न जिनका श्री रामचन्द्रजी के चरणों में प्रेम है, उनके लिए भी यह कविता सुखद हास्यरस का काम देगी। प्रथम तो यह भाषा की रचना है, दूसरे मेरी बुद्धि भोली है, इससे यह हँसने के योग्य ही है, हँसने में उन्हें कोई दोष नहीं॥

प्रभु पद प्रीति न सामुझि नीकी।

तिन्हहि कथा सुनि लागिहि फीकी॥

हरि हर पद रति मति न कुतर की।

तिन्ह कहँ मधुर कथा रघुबर की॥3॥

जिन्हें न तो प्रभु के चरणों में प्रेम है और न अच्छी समझ ही है, उनको यह कथा सुनने में फीकी लगेगी। जिनकी श्री हरि (भगवान विष्णु) और श्री हर (भगवान शिव) के चरणों में प्रीति है और जिनकी बुद्धि कुतर्क करने वाली नहीं है (जो श्री हरि-हर में भेद की या ऊँच-नीच की कल्पना नहीं करते), उन्हें श्री रघुनाथजी की यह कथा मीठी लगेगी॥

राम भगति भूषित जियँ जानी।

सुनिहहिं सुजन सराहि सुबानी॥

कबि न होउँ नहिं बचन प्रबीनू।

सकल कला सब बिद्या हीनू॥4॥

सज्जनगण इस कथा को अपने जी में श्री रामजी की भक्ति से भूषित जानकर सुंदर वाणी से सराहना करते हुए सुनेंगे। मैं न तो कवि हूँ, न वाक्य रचना में ही कुशल हूँ, मैं तो सब कलाओं तथा सब विद्याओं से रहित हूँ॥

आखर अरथ अलंकृति नाना।

छंद प्रबंध अनेक बिधाना॥

भाव भेद रस भेद अपारा।

कबित दोष गुन बिबिध प्रकारा॥5॥

नाना प्रकार के अक्षर, अर्थ और अलंकार, अनेक प्रकार की छंद रचना, भावों और रसों के अपार भेद और कविता के भाँति-भाँति के गुण-दोष होते हैं॥

कबित बिबेक एक नहिं मोरें।

सत्य कहउँ लिखि कागद कोरें॥6॥

इनमें से काव्य सम्बन्धी एक भी बात का ज्ञान मुझमें नहीं है, यह मैं कोरे कागज पर लिखकर (शपथपूर्वक) सत्य-सत्य कहता हूँ॥

भनिति मोरि सब गुन रहित बिस्व बिदित गुन एक।

सो बिचारि सुनिहहिं सुमति जिन्ह कें बिमल बिबेक॥9॥

मेरी रचना सब गुणों से रहित है, इसमें बस, जगत्प्रसिद्ध एक गुण है। उसे विचारकर अच्छी बुद्धिवाले पुरुष, जिनके निर्मल ज्ञान है, इसको सुनेंगे॥

एहि महँ रघुपति नाम उदारा।

अति पावन पुरान श्रुति सारा॥

मंगल भवन अमंगल हारी।

उमा सहित जेहि जपत पुरारी॥1॥

इसमें श्री रघुनाथजी का उदार नाम है, जो अत्यन्त पवित्र है, वेद-पुराणों का सार है, कल्याण का भवन है और अमंगलों को हरने वाला है, जिसे पार्वतीजी सहित भगवान शिवजी सदा जपा करते हैं॥

भनिति बिचित्र सुकबि कृत जोऊ।

राम नाम बिनु सोह न सोउ॥

बिधुबदनी सब भाँति सँवारी।

सोह न बसन बिना बर नारी॥2॥

जो अच्छे कवि के द्वारा रची हुई बड़ी अनूठी कविता है, वह भी राम नाम के बिना शोभा नहीं पाती। जैसे चन्द्रमा के समान मुख वाली सुंदर स्त्री सब प्रकार से सुसज्जित होने पर भी वस्त्र के बिना शोभा नहीं देती॥

सब गुन रहित कुकबि कृत बानी।

राम नाम जस अंकित जानी॥

सादर कहहिं सुनहिं बुध ताही।

मधुकर सरिस संत गुनग्राही॥3॥

इसके विपरीत, कुकवि की रची हुई सब गुणों से रहित कविता को भी, राम के नाम एवं यश से अंकित जानकर, बुद्धिमान लोग आदरपूर्वक कहते और सुनते हैं, क्योंकि संतजन भौंरे की भाँति गुण ही को ग्रहण करने वाले होते हैं॥

जदपि कबित रस एकउ नाहीं।

राम प्रताप प्रगट एहि माहीं॥

सोइ भरोस मोरें मन आवा।

केहिं न सुसंग बड़प्पनु पावा॥4॥

यद्यपि मेरी इस रचना में कविता का एक भी रस नहीं है, तथापि इसमें श्री रामजी का प्रताप प्रकट है। मेरे मन में यही एक भरोसा है। भले संग से भला, किसने बड़प्पन नहीं पाया?॥

धूमउ तजइ सहज करुआई।

अगरु प्रसंग सुगंध बसाई॥

भनिति भदेस बस्तु भलि बरनी।

राम कथा जग मंगल करनी॥5॥

धुआँ भी अगर के संग से सुगंधित होकर अपने स्वाभाविक कड़ुवेपन को छोड़ देता है। मेरी कविता अवश्य भद्दी है, परन्तु इसमें जगत का कल्याण करने वाली रामकथा रूपी उत्तम वस्तु का वर्णन किया गया है। (इससे यह भी अच्छी ही समझी जाएगी।)॥

मंगल करनि कलिमल हरनि तुलसी कथा रघुनाथ की।

गति कूर कबिता सरित की ज्यों सरित पावन पाथ की॥

प्रभु सुजस संगति भनिति भलि होइहि सुजन मन भावनी

भव अंग भूति मसान की सुमिरत सुहावनि पावनी॥

तुलसीदासजी कहते हैं कि श्री रघुनाथजी की कथा कल्याण करने वाली और कलियुग के पापों को हरने वाली है। मेरी इस भद्दी कविता रूपी नदी की चाल पवित्र जल वाली नदी (गंगाजी) की चाल की भाँति टेढ़ी है। प्रभु श्री रघुनाथजी के सुंदर यश के संग से यह कविता सुंदर तथा सज्जनों के मन को भाने वाली हो जाएगी। श्मशान की अपवित्र राख भी श्री महादेवजी के अंग के संग से सुहावनी लगती है और स्मरण करते ही पवित्र करने वाली होती है।

प्रिय लागिहि अति सबहि मम भनिति राम जस संग।

दारु बिचारु कि करइ कोउ बंदिअ मलय प्रसंग॥10 क॥

श्री रामजी के यश के संग से मेरी कविता सभी को अत्यन्त प्रिय लगेगी। जैसे मलय पर्वत के संग से काष्ठमात्र (चंदन बनकर) वंदनीय हो जाता है, फिर क्या कोई काठ (की तुच्छता) का विचार करता है?॥

स्याम सुरभि पय बिसद अति गुनद करहिं सब पान।

गिरा ग्राम्य सिय राम जस गावहिं सुनहिं सुजान ॥10 ख॥

श्यामा गो काली होने पर भी उसका दूध उज्ज्वल और बहुत गुणकारी होता है। यही समझकर सब लोग उसे पीते हैं। इसी तरह गँवारू भाषा में होने पर भी श्री सीताराम जी के यश को बुद्धिमान लोग बड़े चाव से गाते और सुनते हैं॥

मनि मानिक मुकुता छबि जैसी।

अहि गिरि गज सिर सोह न तैसी॥

नृप किरीट तरुनी तनु पाई।

लहहिं सकल सोभा अधिकाई॥1॥

मणि, माणिक और मोती की जैसी सुंदर छबि है, वह साँप, पर्वत और हाथी के मस्तक पर वैसी शोभा नहीं पाती। राजा के मुकुट और नवयुवती स्त्री के शरीर को पाकर ही ये सब अधिक शोभा को प्राप्त होते हैं॥

तैसेहिं सुकबि कबित बुध कहहीं।

उपजहिं अनत अनत छबि लहहीं॥

भगति हेतु बिधि भवन बिहाई।

सुमिरत सारद आवति धाई॥2॥

इसी तरह, बुद्धिमान लोग कहते हैं कि सुकवि की कविता भी उत्पन्न और कहीं होती है और शोभा अन्यत्र कहीं पाती है (अर्थात कवि की वाणी से उत्पन्न हुई कविता वहाँ शोभा पाती है, जहाँ उसका विचार, प्रचार तथा उसमें कथित आदर्श का ग्रहण और अनुसरण होता है)। कवि के स्मरण करते ही उसकी भक्ति के कारण सरस्वतीजी ब्रह्मलोक को छोड़कर दौड़ी आती हैं॥

राम चरित सर बिनु अन्हवाएँ।

सो श्रम जाइ न कोटि उपाएँ॥

कबि कोबिद अस हृदयँ बिचारी।

गावहिं हरि जस कलि मल हारी॥3॥

सरस्वतीजी की दौड़ी आने की वह थकावट रामचरित रूपी सरोवर में उन्हें नहलाए बिना दूसरे करोड़ों उपायों से भी दूर नहीं होती। कवि और पण्डित अपने हृदय में ऐसा विचारकर कलियुग के पापों को हरने वाले श्री हरि के यश का ही गान करते हैं।

कीन्हें प्राकृत जन गुन गाना।

सिर धुनि गिरा लगत पछिताना॥

हृदय सिंधु मति सीप समाना।

स्वाति सारदा कहहिं सुजाना॥4॥

संसारी मनुष्यों का गुणगान करने से सरस्वतीजी सिर धुनकर पछताने लगती हैं (कि मैं क्यों इसके बुलाने पर आई)। बुद्धिमान लोग हृदय को समुद्र, बुद्धि को सीप और सरस्वती को स्वाति नक्षत्र के समान कहते हैं॥

जौं बरषइ बर बारि बिचारू।

हो हिं कबित मुकुतामनि चारू॥5॥

इसमें यदि श्रेष्ठ विचार रूपी जल बरसता है तो मुक्ता मणि के समान सुंदर कविता होती है॥

जुगुति बेधि पुनि पोहिअहिं रामचरित बर ताग।

पहिरहिं सज्जन बिमल उर सोभा अति अनुराग॥11॥

उन कविता रूपी मुक्तामणियों को युक्ति से बेधकर फिर रामचरित्र रूपी सुंदर तागे में पिरोकर सज्जन लोग अपने निर्मल हृदय में धारण करते हैं, जिससे अत्यन्त अनुराग रूपी शोभा होती है (वे आत्यन्तिक प्रेम को प्राप्त होते हैं)॥

जे जनमे कलिकाल कराला।

करतब बायस बेष मराला॥

चलत कुपंथ बेद मग छाँड़े।

कपट कलेवर कलि मल भाँड़े॥1॥

जो कराल कलियुग में जन्मे हैं, जिनकी करनी कौए के समान है और वेष हंस का सा है, जो वेदमार्ग को छोड़कर कुमार्ग पर चलते हैं, जो कपट की मूर्ति और कलियुग के पापों के भाँड़ें हैं॥

बंचक भगत कहाइ राम के।

किंकर कंचन कोह काम के॥

तिन्ह महँ प्रथम रेख जग मोरी।

धींग धरम ध्वज धंधक धोरी॥2॥

जो श्री रामजी के भक्त कहलाकर लोगों को ठगते हैं, जो धन (लोभ), क्रोध और काम के गुलाम हैं और जो धींगाधींगी करने वाले, धर्मध्वजी (धर्म की झूठी ध्वजा फहराने वाले दम्भी) और कपट के धन्धों का बोझ ढोने वाले हैं, संसार के ऐसे लोगों में सबसे पहले मेरी गिनती है॥

जौं अपने अवगुन सब कहऊँ।

बाढ़इ कथा पार नहिं लहऊँ ॥

ताते मैं अति अलप बखाने।

थोरे महुँ जानिहहिं सयाने ॥3॥

यदि मैं अपने सब अवगुणों को कहने लगूँ तो कथा बहुत बढ़ जाएगी और मैं पार नहीं पाऊँगा। इससे मैंने बहुत कम अवगुणों का वर्णन किया है। बुद्धिमान लोग थोड़े ही में समझ लेंगे॥

समुझि बिबिधि बिधि बिनती मोरी।

कोउ न कथा सुनि देइहि खोरी॥

एतेहु पर करिहहिं जे असंका।

मोहि ते अधिक ते जड़ मति रंका॥4॥

मेरी अनेकों प्रकार की विनती को समझकर, कोई भी इस कथा को सुनकर दोष नहीं देगा। इतने पर भी जो शंका करेंगे, वे तो मुझसे भी अधिक मूर्ख और बुद्धि के कंगाल हैं॥

कबि न होउँ नहिं चतुर कहावउँ।

मति अनुरूप राम गुन गावउँ॥

कहँ रघुपति के चरित अपारा।

कहँ मति मोरि निरत संसारा॥5॥

मैं न तो कवि हूँ, न चतुर कहलाता हूँ, अपनी बुद्धि के अनुसार श्री रामजी के गुण गाता हूँ। कहाँ तो श्री रघुनाथजी के अपार चरित्र, कहाँ संसार में आसक्त मेरी बुद्धि !

जेहिं मारुत गिरि मेरु उड़ाहीं।

कहहु तूल केहि लेखे माहीं॥

समुझत अमित राम प्रभुताई।

करत कथा मन अति कदराई॥6॥

जिस हवा से सुमेरु जैसे पहाड़ उड़ जाते हैं, कहिए तो, उसके सामने रूई किस गिनती में है। श्री रामजी की असीम प्रभुता को समझकर कथा रचने में मेरा मन बहुत हिचकता है-॥

सारद सेस महेस बिधि आगम निगम पुरान।

नेति नेति कहि जासु गुन करहिं निरंतर गान॥12॥

सरस्वतीजी, शेषजी, शिवजी, ब्रह्माजी, शास्त्र, वेद और पुराण- ये सब ‘नेति-नेति’ कहकर (पार नहीं पाकर ‘ऐसा नहीं’, ऐसा नहीं कहते हुए) सदा जिनका गुणगान किया करते हैं॥

सब जानत प्रभु प्रभुता सोई।

तदपि कहें बिनु रहा न कोई॥

तहाँ बेद अस कारन राखा।

भजन प्रभाउ भाँति बहु भाषा॥1॥

यद्यपि प्रभु श्री रामचन्द्रजी की प्रभुता को सब ऐसी (अकथनीय) ही जानते हैं, तथापि कहे बिना कोई नहीं रहा। इसमें वेद ने ऐसा कारण बताया है कि भजन का प्रभाव बहुत तरह से कहा गया है। (अर्थात भगवान की महिमा का पूरा वर्णन तो कोई कर नहीं सकता, परन्तु जिससे जितना बन पड़े उतना भगवान का गुणगान करना चाहिए, क्योंकि भगवान के गुणगान रूपी भजन का प्रभाव बहुत ही अनोखा है, उसका नाना प्रकार से शास्त्रों में वर्णन है। थोड़ा सा भी भगवान का भजन मनुष्य को सहज ही भवसागर से तार देता है)॥

एक अनीह अरूप अनामा।

अज सच्चिदानंद पर धामा॥

ब्यापक बिस्वरूप भगवाना।

तेहिं धरि देह चरित कृत नाना॥2॥

जो परमेश्वर एक है, जिनके कोई इच्छा नहीं है, जिनका कोई रूप और नाम नहीं है, जो अजन्मा, सच्चिदानन्द और परमधाम है और जो सबमें व्यापक एवं विश्व रूप हैं, उन्हीं भगवान ने दिव्य शरीर धारण करके नाना प्रकार की लीला की है॥

सो केवल भगतन हित लागी।

परम कृपाल प्रनत अनुरागी॥

जेहि जन पर ममता अति छोहू।

जेहिं करुना करि कीन्ह न कोहू॥3॥

वह लीला केवल भक्तों के हित के लिए ही है, क्योंकि भगवान परम कृपालु हैं और शरणागत के बड़े प्रेमी हैं। जिनकी भक्तों पर बड़ी ममता और कृपा है, जिन्होंने एक बार जिस पर कृपा कर दी, उस पर फिर कभी क्रोध नहीं किया॥

गई बहोर गरीब नेवाजू।

सरल सबल साहिब रघुराजू॥

बुध बरनहिं हरि जस अस जानी।

करहिं पुनीत सुफल निज बानी॥4॥

वे प्रभु श्री रघुनाथजी गई हुई वस्तु को फिर प्राप्त कराने वाले, गरीब नवाज (दीनबन्धु), सरल स्वभाव, सर्वशक्तिमान और सबके स्वामी हैं। यही समझकर बुद्धिमान लोग उन श्री हरि का यश वर्णन करके अपनी वाणी को पवित्र और उत्तम फल (मोक्ष और दुर्लभ भगवत्प्रेम) देने वाली बनाते हैं॥

तेहिं बल मैं रघुपति गुन गाथा।

कहिहउँ नाइ राम पद माथा॥

मुनिन्ह प्रथम हरि कीरति गाई।

तेहिं मग चलत सुगम मोहि भाई॥5॥

उसी बल से (महिमा का यथार्थ वर्णन नहीं, परन्तु महान फल देने वाला भजन समझकर भगवत्कृपा के बल पर ही) मैं श्री रामचन्द्रजी के चरणों में सिर नवाकर श्री रघुनाथजी के गुणों की कथा कहूँगा। इसी विचार से (वाल्मीकि, व्यास आदि) मुनियों ने पहले हरि की कीर्ति गाई है। भाई! उसी मार्ग पर चलना मेरे लिए सुगम होगा।

अति अपार जे सरित बर जौं नृप सेतु कराहिं।

चढ़ि पिपीलिकउ परम लघु बिनु श्रम पारहि जाहिं॥13॥

जो अत्यन्त बड़ी श्रेष्ठ नदियाँ हैं, यदि राजा उन पर पुल बँधा देता है, तो अत्यन्त छोटी चींटियाँ भी उन पर चढ़कर बिना ही परिश्रम के पार चली जाती हैं। (इसी प्रकार मुनियों के वर्णन के सहारे मैं भी श्री रामचरित्र का वर्णन सहज ही कर सकूँगा)॥

एहि प्रकार बल मनहि देखाई।

करिहउँ रघुपति कथा सुहाई॥

ब्यास आदि कबि पुंगव नाना।

जिन्ह सादर हरि सुजस बखाना॥1॥

इस प्रकार मन को बल दिखलाकर मैं श्री रघुनाथजी की सुहावनी कथा की रचना करूँगा। व्यास आदि जो अनेकों श्रेष्ठ कवि हो गए हैं, जिन्होंने बड़े आदर से श्री हरि का सुयश वर्णन किया है॥

*कवि वंदना*

चरन कमल बंदउँ तिन्ह केरे।

पुरवहुँ सकल मनोरथ मेरे॥

कलि के कबिन्ह करउँ परनामा।

जिन्ह बरने रघुपति गुन ग्रामा॥2॥

भावार्थ:-मैं उन सब (श्रेष्ठ कवियों) के चरणकमलों में प्रणाम करता हूँ, वे मेरे सब मनोरथों को पूरा करें। कलियुग के भी उन कवियों को मैं प्रणाम करता हूँ, जिन्होंने श्री रघुनाथजी के गुण समूहों का वर्णन किया है॥2॥

जे प्राकृत कबि परम सयाने।

भाषाँ जिन्ह हरि चरित बखाने॥

भए जे अहहिं जे होइहहिं आगें।

प्रनवउँ सबहि कपट सब त्यागें॥3॥

भावार्थ:-जो बड़े बुद्धिमान प्राकृत कवि हैं, जिन्होंने भाषा में हरि चरित्रों का वर्णन किया है, जो ऐसे कवि पहले हो चुके हैं, जो इस समय वर्तमान हैं और जो आगे होंगे, उन सबको मैं सारा कपट त्यागकर प्रणाम करता हूँ॥3॥

होहु प्रसन्न देहु बरदानू।

साधु समाज भनिति सनमानू॥

जो प्रबंध बुध नहिं आदरहीं।

सो श्रम बादि बाल कबि करहीं॥4॥

भावार्थ:-आप सब प्रसन्न होकर यह वरदान दीजिए कि साधु समाज में मेरी कविता का सम्मान हो, क्योंकि बुद्धिमान लोग जिस कविता का आदर नहीं करते, मूर्ख कवि ही उसकी रचना का व्यर्थ परिश्रम करते हैं॥4॥

कीरति भनिति भूति भलि सोई।

सुरसरि सम सब कहँ हित होई॥

राम सुकीरति भनिति भदेसा।

असमंजस अस मोहि अँदेसा॥5॥

भावार्थ:-कीर्ति, कविता और सम्पत्ति वही उत्तम है, जो गंगाजी की तरह सबका हित करने वाली हो। श्री रामचन्द्रजी की कीर्ति तो बड़ी सुंदर (सबका अनन्त कल्याण करने वाली ही) है, परन्तु मेरी कविता भद्दी है। यह असामंजस्य है (अर्थात इन दोनों का मेल नहीं मिलता), इसी की मुझे चिन्ता है॥5॥

तुम्हरी कृपाँ सुलभ सोउ मोरे।

सिअनि सुहावनि टाट पटोरे॥6॥

भावार्थ:-परन्तु हे कवियों! आपकी कृपा से यह बात भी मेरे लिए सुलभ हो सकती है। रेशम की सिलाई टाट पर भी सुहावनी लगती है॥6॥

सरल कबित कीरति बिमल सोइ आदरहिं सुजान।

सहज बयर बिसराइ रिपु जो सुनि करहिं बखान॥14 क॥

भावार्थ:-चतुर पुरुष उसी कविता का आदर करते हैं, जो सरल हो और जिसमें निर्मल चरित्र का वर्णन हो तथा जिसे सुनकर शत्रु भी स्वाभाविक बैर को भूलकर सराहना करने लगें॥14 (क)॥

सो न होई बिनु बिमल मति मोहि मति बल अति थोर।

करहु कृपा हरि जस कहउँ पुनि पुनि करउँ निहोर॥14 ख॥

भावार्थ:-ऐसी कविता बिना निर्मल बुद्धि के होती नहीं और मेरी बुद्धि का बल बहुत ही थोड़ा है, इसलिए बार-बार निहोरा करता हूँ कि हे कवियों! आप कृपा करें, जिससे मैं हरि यश का वर्णन कर सकूँ॥14 (ख)॥

कबि कोबिद रघुबर चरित मानस मंजु मराल।

बालबिनय सुनि सुरुचि लखि मो पर होहु कृपाल॥14 ग॥

भावार्थ:-कवि और पण्डितगण! आप जो रामचरित्र रूपी मानसरोवर के सुंदर हंस हैं, मुझ बालक की विनती सुनकर और सुंदर रुचि देखकर मुझ पर कृपा करें॥14 (ग)॥

*वाल्मीकि, वेद, ब्रह्मा, देवता, शिव, पार्वती आदि की वंदना*

बंदउँ मुनि पद कंजु रामायन जेहिं निरमयउ।

सखर सुकोमल मंजु दोष रहित दूषन सहित॥14 घ॥

भावार्थ:-मैं उन वाल्मीकि मुनि के चरण कमलों की वंदना करता हूँ, जिन्होंने रामायण की रचना की है, जो खर (राक्षस) सहित होने पर भी (खर (कठोर) से विपरीत) बड़ी कोमल और सुंदर है तथा जो दूषण (राक्षस) सहित होने पर भी दूषण अर्थात्‌ दोष से रहित है॥14 (घ)॥

बंदउँ चारिउ बेद भव बारिधि बोहित सरिस।

जिन्हहि न सपनेहुँ खेद बरनत रघुबर बिसद जसु॥14 ङ॥

भावार्थ:-मैं चारों वेदों की वन्दना करता हूँ, जो संसार समुद्र के पार होने के लिए जहाज के समान हैं तथा जिन्हें श्री रघुनाथजी का निर्मल यश वर्णन करते स्वप्न में भी खेद (थकावट) नहीं होता॥14 (ङ)॥

बंदउँ बिधि पद रेनु भव सागर जेहिं कीन्ह जहँ।

संत सुधा ससि धेनु प्रगटे खल बिष बारुनी॥14च॥

भावार्थ:-मैं ब्रह्माजी के चरण रज की वन्दना करता हूँ, जिन्होंने भवसागर बनाया है, जहाँ से एक ओर संतरूपी अमृत, चन्द्रमा और कामधेनु निकले और दूसरी ओर दुष्ट मनुष्य रूपी विष और मदिरा उत्पन्न हुए॥14 (च)॥

बिबुध बिप्र बुध ग्रह चरन बंदि कहउँ कर जोरि।

होइ प्रसन्न पुरवहु सकल मंजु मनोरथ मोरि॥14 छ॥

भावार्थ:-देवता, ब्राह्मण, पंडित, ग्रह- इन सबके चरणों की वंदना करके हाथ जोड़कर कहता हूँ कि आप प्रसन्न होकर मेरे सारे सुंदर मनोरथों को पूरा करें॥14 (छ)॥

पुनि बंदउँ सारद सुरसरिता।

जुगल पुनीत मनोहर चरिता॥

मज्जन पान पाप हर एका।

कहत सुनत एक हर अबिबेका॥1॥

भावार्थ:-फिर मैं सरस्वती और देवनदी गंगाजी की वंदना करता हूँ। दोनों पवित्र और मनोहर चरित्र वाली हैं। एक (गंगाजी) स्नान करने और जल पीने से पापों को हरती है और दूसरी (सरस्वतीजी) गुण और यश कहने और सुनने से अज्ञान का नाश कर देती है॥1॥

गुर पितु मातु महेस भवानी।

प्रनवउँ दीनबंधु दिन दानी॥

सेवक स्वामि सखा सिय पी के।

हित निरुपधि सब बिधि तुलसी के॥2॥

भावार्थ:-श्री महेश और पार्वती को मैं प्रणाम करता हूँ, जो मेरे गुरु और माता-पिता हैं, जो दीनबन्धु और नित्य दान करने वाले हैं, जो सीतापति श्री रामचन्द्रजी के सेवक, स्वामी और सखा हैं तथा मुझ तुलसीदास का सब प्रकार से कपटरहित (सच्चा) हित करने वाले हैं॥2॥

कलि बिलोकि जग हित हर गिरिजा।

साबर मंत्र जाल जिन्ह सिरिजा॥

अनमिल आखर अरथ न जापू।

प्रगट प्रभाउ महेस प्रतापू॥3॥

भावार्थ:-जिन शिव-पार्वती ने कलियुग को देखकर, जगत के हित के लिए, शाबर मन्त्र समूह की रचना की, जिन मंत्रों के अक्षर बेमेल हैं, जिनका न कोई ठीक अर्थ होता है और न जप ही होता है, तथापि श्री शिवजी के प्रताप से जिनका प्रभाव प्रत्यक्ष है॥3॥

सो उमेस मोहि पर अनुकूला।

करिहिं कथा मुद मंगल मूला॥

सुमिरि सिवा सिव पाइ पसाऊ।

बस्नउँ रामचरित चित चाऊ॥4॥

भावार्थ:-वे उमापति शिवजी मुझ पर प्रसन्न होकर (श्री रामजी की) इस कथा को आनन्द और मंगल की मूल (उत्पन्न करने वाली) बनाएँगे। इस प्रकार पार्वतीजी और शिवजी दोनों का स्मरण करके और उनका प्रसाद पाकर मैं चाव भरे चित्त से श्री रामचरित्र का वर्णन करता हूँ॥4॥

भनिति मोरि सिव कृपाँ बिभाती।

ससि समाज मिलि मनहुँ सुराती॥

जे एहि कथहि सनेह समेता।

कहिहहिं सुनिहहिं समुझि सचेता॥5॥

होइहहिं राम चरन अनुरागी।

कलि मल रहित सुमंगल भागी॥6॥

भावार्थ:-मेरी कविता श्री शिवजी की कृपा से ऐसी सुशोभित होगी, जैसी तारागणों के सहित चन्द्रमा के साथ रात्रि शोभित होती है, जो इस कथा को प्रेम सहित एवं सावधानी के साथ समझ-बूझकर कहें-सुनेंगे, वे कलियुग के पापों से रहित और सुंदर कल्याण के भागी होकर श्री रामचन्द्रजी के चरणों के प्रेमी बन जाएँगे॥5-6॥

सपनेहुँ साचेहुँ मोहि पर जौं हर गौरि पसाउ।

तौ फुर होउ जो कहेउँ सब भाषा भनिति प्रभाउ॥15॥

भावार्थ:-यदि मु्‌झ पर श्री शिवजी और पार्वतीजी की स्वप्न में भी सचमुच प्रसन्नता हो, तो मैंने इस भाषा कविता का जो प्रभाव कहा है, वह सब सच हो॥15॥

*श्री सीताराम-धाम-परिकर वंदना*

बंदउँ अवध पुरी अति पावनि।

सरजू सरि कलि कलुष नसावनि॥

प्रनवउँ पुर नर नारि बहोरी।

ममता जिन्ह पर प्रभुहि न थोरी॥1॥

भावार्थ:-मैं अति पवित्र श्री अयोध्यापुरी और कलियुग के पापों का नाश करने वाली श्री सरयू नदी की वन्दना करता हूँ। फिर अवधपुरी के उन नर-नारियों को प्रणाम करता हूँ, जिन पर प्रभु श्री रामचन्द्रजी की ममता थोड़ी नहीं है (अर्थात्‌ बहुत है)॥1॥

सिय निंदक अघ ओघ नसाए।

लोक बिसोक बनाइ बसाए॥

बंदउँ कौसल्या दिसि प्राची।

कीरति जासु सकल जग माची॥2॥

भावार्थ:-उन्होंने (अपनी पुरी में रहने वाले) सीताजी की निंदा करने वाले (धोबी और उसके समर्थक पुर-नर-नारियों) के पाप समूह को नाश कर उनको शोकरहित बनाकर अपने लोक (धाम) में बसा दिया। मैं कौशल्या रूपी पूर्व दिशा की वन्दना करता हूँ, जिसकी कीर्ति समस्त संसार में फैल रही है॥2॥

प्रगटेउ जहँ रघुपति ससि चारू।

बिस्व सुखद खल कमल तुसारू॥

दसरथ राउ सहित सब रानी।

सुकृत सुमंगल मूरति मानी॥3॥

करउँ प्रनाम करम मन बानी।

करहु कृपा सुत सेवक जानी॥

जिन्हहि बिरचि बड़ भयउ बिधाता।

महिमा अवधि राम पितु माता॥4॥

भावार्थ:-जहाँ (कौशल्या रूपी पूर्व दिशा) से विश्व को सुख देने वाले और दुष्ट रूपी कमलों के लिए पाले के समान श्री रामचन्द्रजी रूपी सुंदर चंद्रमा प्रकट हुए। सब रानियों सहित राजा दशरथजी को पुण्य और सुंदर कल्याण की मूर्ति मानकर मैं मन, वचन और कर्म से प्रणाम करता हूँ। अपने पुत्र का सेवक जानकर वे मुझ पर कृपा करें, जिनको रचकर ब्रह्माजी ने भी बड़ाई पाई तथा जो श्री रामजी के माता और पिता होने के कारण महिमा की सीमा हैं॥3-4॥

बंदउँ अवध भुआल सत्य प्रेम जेहि राम पद।

बिछुरत दीनदयाल प्रिय तनु तृन इव परिहरेउ॥16॥

भावार्थ:-मैं अवध के राजा श्री दशरथजी की वन्दना करता हूँ, जिनका श्री रामजी के चरणों में सच्चा प्रेम था, जिन्होंने दीनदयालु प्रभु के बिछुड़ते ही अपने प्यारे शरीर को मामूली तिनके की तरह त्याग दिया॥16॥

प्रनवउँ परिजन सहित बिदेहू।

जाहि राम पद गूढ़ सनेहू॥

जोग भोग महँ राखेउ गोई।

राम बिलोकत प्रगटेउ सोई॥1॥

भावार्थ:-मैं परिवार सहित राजा जनकजी को प्रणाम करता हूँ, जिनका श्री रामजी के चरणों में गूढ़ प्रेम था, जिसको उन्होंने योग और भोग में छिपा रखा था, परन्तु श्री रामचन्द्रजी को देखते ही वह प्रकट हो गया॥1॥

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