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Thursday, November 21, 2024

#श्रीगौरदास_बाबाजी

@sanatanyatra:सन् १८९२ के आसपास नन्दग्राम में पावन सरोवर के तीर पर श्रीसनातन गोस्वामीपाद की प्राचीन भजन-कुटी में श्रीगौरदास बाबाजी भजन करते थे। वे सिद्ध पुरुष थे। नित्य प्रेमसरोवर के निकट गाजीपुर से फूल चुन लाते थे। माला पिरोकर श्रीलालजी को पहनाते थे। फूल-सेवा द्वारा ही उन्होंने श्रीकृष्ण-कृपा लाभ की थी। कृपा-लाभ करने के पूर्व चार पाँच साल से वे फूल-सेवा करते आ रहे थे।

उन्हें अभिमान हुआ–’इतने दिन से फूल-सेवा करता आ रहा हूँ, फिर भी लालजी ने कृपा नहीं की ! उनका हृदय कठिन है। पर वृषभानुनन्दिनी के मन-प्राण करुणा द्वारा ही गठित हैं। इतने दिन उनकी सेवा करता, तो वे अवश्य कृपा करतीं। मैं आज ही बरसाने चला जाऊँगा, यहाँ नहीं रहूँगा।’

सन्ध्या समय कंथा आदि पीठ पर लाद वे बरसाने की ओर चल दिये। जब नन्दग्राम से एक मील दक्षिण की ओर एक मैदान में से होकर जा रहे थे, बहुत-से ग्वाल-बाल गोचारण करा गाँव को लौट रहे थे। एक साँवले रंग के सुन्दर बालक ने उनसे पूछा–’बाबा तू कहाँ जाय ?’

‘लाला हम बरसाने जाय रहे हैं’–बाबा ने उत्तर दिया और उनके नेत्र डबडबा आये। बालक ने रुककर कुछ व्याकुलता से बाबा की ओर निहारते हुए ऊँचे स्वर में कहा–’बाबा ! मत जा।’ बाबा बोले–’ना लाला, मैं छः वर्ष यहाँ रहा। मुझे कुछ नहीं मिला। अब और यहाँ रहकर क्या करूँगा ?’

बालक ने दोनों हाथ फैलाकर रास्ता रोकते हुए कहा–’बाबा मान जा, मत जा।’

बाबा झुंझलाकर बोले–’छोरा क्यों ऊधम करे है ? रास्ता छोड़ दे।’

‘तो बाबा मेरी फूल सेवा कौन करैगो ?’ बालक ने और ऊँचे स्वर में कहा।

‘तू कौन है रे ?’ बाबा ने आश्चर्य में कहा। वैसे ही देखा कि न वह बालक, है, न उसके साथी और गायें !

बाबा के प्राण रो दिये। ‘हा, कृष्ण ! हा, कृष्ण !’ कह रोते-चीखते वे भूमि पर लोट-पोट होने लगे। चेतना खो बैठे। चेतना आने पर फिर क्रन्दन और विलाप–’कृष्ण ! छलिया ! हाय ! कृपा की तो भी छल ! यदि कुछ पल रुककर मुझे अपने नेत्र और प्राणों को शीतलकर लेने देते, तो क्या तुम्हारी कृपा का भण्डार खाली हो जाता ? पर नहीं दीनवत्सल ! तुम्हारा नहीं, मेरा ही दोष है। इस नराधम में वह योग्यता ही कहाँ जो तुम्हें पहचानता, वह प्रेम और भक्ति ही कहाँ, जिसके कारण तुम रुकने को बाध्य होते।’

उधर पुजारी को आदेश हुआ–’देख, गौरदास मेरी फूल-सेवा न छोड़े। मैं और किसी की फूल-सेवा अङ्गीकार नहीं करूँगा।’

लेखक: बी. एल कपूर

पुस्तक: व्रज के भक्त

(प्रथम खण्ड)

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